बीकानेरNidarindia.com
राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी और श्री नेहरू शारदापीठ पीजी महाविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में शनिवार को महाविद्यालय सभागार में ‘पुस्तक-चर्चा’ के तहत महाकवि पृथ्वीराज राठौड़ की कृति ‘किसन-रुकमणी री वेलि’ पर विचार-विमर्श किया गया।
इस अवसर पर महाविद्यालय प्राचार्य डॉ. प्रशांत बिस्सा ने कहा कि ‘किसन-रुकमणी री वेलि’ एक कालजयी कृति है। महाकवि पृथ्वीराज राठौड़ बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वीर होने के साथ-साथ वे उच्च कोटि के कवि भी थे। उनका जन्म सन् 1549 में बीकानेर राजवंश में हुआ था। उन्हें डिंगल का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है। कर्नल टॉड व डॉ. एल.पी. तैस्सीतोरी जैसे विद्वानों ने भी उनकी काव्य-प्रतिभा की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है।
अकादमी सचिव शरद केवलिया ने कहा कि पृथ्वीराज राठौड़ बहुपठित व बहुश्रुत व्यक्ति थे। वेलि में कई स्थान पर कवि की विविध शास्त्रों और लौकिक प्रथाओं की जानकारी प्राप्त होती है। इसमें ज्योतिष, वैद्यक, संगीत, नृत्य, नाट्य शास्त्र, योग, राजनीति, कृषि, लोक जीवन, प्रकृति-ज्ञान, पुराणों आदि की अनुपम जानकारी मिलती है।
जागती जोत के उप-संपादक शंकरसिंह राजपुरोहित ने कहा कि प्रसिद्ध साहित्यकार नरोत्तमदास स्वामी ने ‘किसन-रुकमणी री वेलि’ को हिन्दी भाषांतर, पाठांतर व विविध टिप्पणियों के साथ बेहतरीन रूप से संपादित किया। इसकी कथा का आधार भागवत पुराण है। चारण कवि दुरसा आढ़ा ने ‘किसन-रुकमणी री वेलि’ को पांचवा वेद और उन्नीसवां पुराण कहा है। वेलि में भक्ति और श्रृंगार रस का अनूठा वर्णन मिलता है।
महाविद्यालय के राजस्थानी विभागाध्यक्ष डॉ. गौरीशंकर प्रजापत ने कहा कि वेलि की भाषा विशुद्ध डिंगल है। भाषा पर कवि का अद्भुत अधिकार है। शब्दालंकारों का प्रचुर प्रयोग होते हुए भी भाषा का प्रवाह अत्यंत सजीव है। शब्द-चयन बड़ी कुशलता व मार्मिकता से किया गया है। वेलि में वैणसगाई अलंकार का पूर्ण निर्वाह किया गया है। इस अवसर पर महाविद्यालय स्टाफ, विद्यार्थी मौजूद रहे।