-विदेशों में है मगरा, मारवाड़ी और चोकला नस्ल की भेड़ों की गलीचा ऊन की मांग
-शोध के बाद इनके वजन में हो रहा इजाफा, केन्द्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान की पहल
रमेश बिस्सा
बीकानेरNidarindia.comभुजिया-रसगुल्ला के साथ ही बीकानेर उच्च क्वालिटी के गलीचों (कारपेट) लिए भी विश्व पटल पर अपनी विशेष पहचान रखता है। खासकर यहां की मगरा, मारवाड़ी और चोकला नस्ल की भेड़ों से मिलने वाली जो ऊन है, उसके धागे से निर्मित गलीचे विदेशों में काफी पसंद किए जाते हैं। यही वजह है कि इन नस्लों की ऊन विशेष चमक बिखर रही है। बीकानेर की गलीचा ऊन और भेड़ों की नस्लों पर बीछवाल स्थित केन्द्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान मरु क्षेत्रीय परिसर लंबे समय से शोध कर रहा है। इसके परिणाम स्वरूप आज इन भेड़ों के वजन में छह माह में 40-50 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है।
6 लाख परिवारों का रोजगार…
देश में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कारपेट(गलीचा) उद्योग से करीब 6 लाख परिवार जुड़े हैं। जिनकी रोजी-रोटी, रोजगार इससे चलता है। बीकानेरी ऊन के धागे से निर्मित गलीचों की मांग आज विश्व के प्रमुख देशों में है। बीकानेर में विशेष नस्ल की भेड़ों से खास किस्म की ऊन मिलती है, जिससे धागा तैयार होता है, फिर उससे गलीचा तैयार होता है। बीकानेर में वर्तमान में ऊन की करीब 200 इकाइयां है। यहां ऊन का आयात भी होता है, जबकि धागा निर्यात होता है। प्रदेश में जयपुर में गलीचे तैयार किए जाते हैं, इसके अलावा उत्तर प्रदेश के भदौही में इनकी इकाइयां है, जहां पर गलीचे निर्मित होते हैं और उनका निर्यात होता है।
देश में 44 नस्ल की भेड़े…
कृषि प्रधान देश भारत में भेड़ों की 44 प्रमुख नस्ले हैं। देश में करीब साढ़े 7 करोड़ भेड़े हैं, जिनमें से प्रदेश में 80 लाख है। प्रदेश की आठ नस्लें प्रमुख है। यह गलीचा ऊन के लिए विशेष पहचान रखती है। इसमें मुख्य रूप से मगरा, मारवाड़ी, चोकला, जैसलमेरी, पूगल आदि मुख् य है। राजस्थान के शुष्क क्षेत्र में सीमित चारा संसाधन है, कठोर कृषि जलवायु परिस्थितियां है, ऐसे में यहां के किसानों, खेतीहर मजदूरों की आजीविका का प्रमुख साधन भेड़ एवं बकरी पालन है।
…तब शुरू हुआ था शोध
केन्द्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान मरु क्षेत्रीय परिसर की नींव 1974 में रखी गई थी। इसने 1980 में मारवाड़ी नस्ल और 1996 में मगरा पर शोध शुरू कर दिया था। इसके बाद यह परिवर्तन हुआ है। पूर्व में इन भेड़ों का जो वजन एक वर्ष में होता था, वो आज छह माह में आने लगा है। साथ ही केन्द्र की पहल के बाद टीकाकरण के प्रति रुझान बढ़ा, तो इनकी मृत्यु दर भी घट रही है। भेड़ पालकों को यह केन्द्र समय-समय पर उच्च किस्म के बीजू मेढ़े भेड़ पालकों को रियायती दरों पर मुहैया कराते हैं, ताकि भेड़ पालक भी अच्छी किस्म की ऊन ले सके और भेड़ों के वजन में वृद्धि कर सके। इसके साथ भेड़ पालकों को प्रशिक्षित भी किया जाता है।
इन नस्लों की यह है विशेषताएंं
मगरा- इस नस्ल को बीकानेरी चोकला के नाम से जाना। यह मुख्य रूप से राजस्थान के बीकानेर, नागौर एवं चूरू जिलों में पाई जाती है। इनका शरीर मजबूत एवं गठीला होता है मगरा से प्राप्त होने वाली ऊन गलीचा निमार्ण के लिए उत्तम मानी जाती है। इस नस्ल की दो से ढाई किलोग्राम तक ऊन प्रतिवर्ष मिलती है। इनसे प्राप्त ऊन मध्यम श्रेणी की चमकदार व सफेद होती है। साधारणतया इन भेड़ों से वर्ष में तीन बार ऊन का कल्पन (काती) किया जाता। यह 200-250 रुपए प्रति किलो की दरों से बिकती है। बीकानेर की तीनों ही नस्लों की अपनी-अपनी विशेषताएं है। इसमें मगरा के अलावा मारवाड़ी और चोकला प्रजाति प्रसिद्ध है। इसमें मारवाड़ी नस्ल की भेड़ की ऊन का कल्पन साल में दो बार होता है, यह राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में अधिकता में पाई जानी वाली भेड की नस्ल मारवाड़ी कहा जाता है। यह भेड़ मुख्य रूप से जोधपुर, पाली, नागौर, जालोर, बाडमेर, सिरोही और इन जिलों से लगे हए क्षेत्रों में भी पाई जाती है। इस नस्ल की भेड़ से प्रतिवर्ष 1.5-1.8 किग्रा सफेद और अधिक मोटी श्रेणी की ऊन प्राप्त होती है।
गलीचा ऊन के लिए प्रसिद्ध
“बीकानेरी नस्ल की चोकला सहित अन्य भेड़ों से प्राप्त ऊन गलीचा उद्योग के लिए सबसे उत्तम मानी जाती है। चोकला नस्ल की भेड़ की ऊन थोड़ी बारिक होती है और इसे राजस्थान की मैरीनो भी कहते हैं। यह ना केवल भारत बल्कि विश्व की अच्छी नस्ल की भेड़ें मानी जाती है। इनसे प्राप्त होने वाल ऊन उच्च क्वालिटी की होती है, जो कॉरपेट निर्माण सबसे अहम है। बीकानेर में लगातार इस पर शोध किया जा रहा है। आज ग्रामीण क्षेत्रों की भेड़ों के वजन और ऊन दोनों ही बढ़ गई है। साथ ही टीकाकरण के मृत्यु दर में कमी आई है।”
डॉ.एच,के. नरुला, प्रधान वैज्ञानिक एवं पूर्व प्रभागाध्यक्ष, केन्द्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान, मरु क्षेत्रीय परिसर, बीकानेर